अब नहीं अटकता दिल दुपट्टे में
उम्र का अपना तकाज़ा होता है
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कहां तो मुश्किल था लम्हा तेरे बगैर
कहां गुज़ार दी देख ज़िंदगी हमने
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ज़ायका बिगाड़ गया सब्र का फल
हमने तो सुना था मीठा होता है
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अपने बदरंग लिबासों की फिक्र कौन करे
बे-पर्दा रूह का जब एहतराम हो निगाहों में
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वादों का टूटना तो सुना था अक्सर शेख
आजकल कोशिशें भी कामयाब नहीं होतीं
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ए पारस सा मिज़ाज़ रखने वाले
मैं संग सही छूकर मुझे नवाज़ दे
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"इक हसीं हमसफ़र की तौफ़ीक दे दे
मैंने कब तुझसे हरम मांगा है"
हरम-ऐशगाह
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"मैं आज तेरा हमसफ़र ना सही
कभी हम दो कदम साथ चले थे"
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"गर तू खुद को दानां समझता है
पढ़ मेरी आंखों में मेरे दिल को"
दाना-बुद्धिमान
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"तुम मेरे नक्शे-पा मिटाते हुए चलना
कोई और ना मेरे बाद कांटों से गुज़रे"
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"अदब-औ-मुहब्बत से मिलो सबसे
जाने कौन सी मुलाकात आखिरी हो"
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"ये कैसा अहद अब आ गया है शेख
मुहब्बत रस्म अदायगी सी लगती है"
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"हाथ ताउम्र खाशाक से भरे रहे
गौहर भी मिले तो यकीं नहीं होता"
खाशाक=कूड़ा-करकट
गौहर=मोती
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"मुफ़लिसों को थी चांदनी की जुस्तजू
रसूख़दारों ने महे-कामिल कैद कर लिया"
महे-कामिल=पूर्ण चंद्र
जुस्तजू-इच्छा;अभिलाषा
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"हर कोई निगाहों से गिरा देता है
अदने से अश्क की बिसात ही क्या"
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"खास होने की जद्दोजहद में लगे हैं सभी
इतना आसां भी नहीं है आम होना"
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"कद का बातों पे हुआ कुछ ऐसा असर
हमारी सब फिज़ूल, उनकी उसूल हुईं।"
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"जाने इस नस्ल का अब क्या होगा
सियासत रिश्तों में जज़्ब हुई जाती है"
जज़्ब-समाना
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ये कैसा अहद अब आ गया है शेख
मुहब्बत रस्म अदायगी सी लगती है
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जोड़-घटाना अशआरों में कीजिए
इंसा तरमीम को राज़ी नहीं होते
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हमने ज़रा कहा तो तिलमिला गए
लोगों को सच की आदत जो नहीं
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खास होने की जद्दोजहद में लगे हैं सभी
इतना आसां भी नहीं है आम होना
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"कद का बातों पे हुआ कुछ ऐसा असर
हमारी सब फिज़ूल, उनकी उसूल हुईं।"
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आसान मश्गला ना समझो अशआरों को गढ़ लेना
सौ बार तराशे जाते हैं ये दिल में उतरने से पहले
मश्गला-कार्य
अशआर-काव्य पंक्तियां
-हेमन्त रिछारिया
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उम्र का अपना तकाज़ा होता है
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कहां तो मुश्किल था लम्हा तेरे बगैर
कहां गुज़ार दी देख ज़िंदगी हमने
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ज़ायका बिगाड़ गया सब्र का फल
हमने तो सुना था मीठा होता है
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अपने बदरंग लिबासों की फिक्र कौन करे
बे-पर्दा रूह का जब एहतराम हो निगाहों में
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वादों का टूटना तो सुना था अक्सर शेख
आजकल कोशिशें भी कामयाब नहीं होतीं
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ए पारस सा मिज़ाज़ रखने वाले
मैं संग सही छूकर मुझे नवाज़ दे
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"इक हसीं हमसफ़र की तौफ़ीक दे दे
मैंने कब तुझसे हरम मांगा है"
हरम-ऐशगाह
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"मैं आज तेरा हमसफ़र ना सही
कभी हम दो कदम साथ चले थे"
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"गर तू खुद को दानां समझता है
पढ़ मेरी आंखों में मेरे दिल को"
दाना-बुद्धिमान
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"तुम मेरे नक्शे-पा मिटाते हुए चलना
कोई और ना मेरे बाद कांटों से गुज़रे"
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"अदब-औ-मुहब्बत से मिलो सबसे
जाने कौन सी मुलाकात आखिरी हो"
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"ये कैसा अहद अब आ गया है शेख
मुहब्बत रस्म अदायगी सी लगती है"
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"हाथ ताउम्र खाशाक से भरे रहे
गौहर भी मिले तो यकीं नहीं होता"
खाशाक=कूड़ा-करकट
गौहर=मोती
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"मुफ़लिसों को थी चांदनी की जुस्तजू
रसूख़दारों ने महे-कामिल कैद कर लिया"
महे-कामिल=पूर्ण चंद्र
जुस्तजू-इच्छा;अभिलाषा
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"हर कोई निगाहों से गिरा देता है
अदने से अश्क की बिसात ही क्या"
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"खास होने की जद्दोजहद में लगे हैं सभी
इतना आसां भी नहीं है आम होना"
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"कद का बातों पे हुआ कुछ ऐसा असर
हमारी सब फिज़ूल, उनकी उसूल हुईं।"
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"जाने इस नस्ल का अब क्या होगा
सियासत रिश्तों में जज़्ब हुई जाती है"
जज़्ब-समाना
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ये कैसा अहद अब आ गया है शेख
मुहब्बत रस्म अदायगी सी लगती है
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जोड़-घटाना अशआरों में कीजिए
इंसा तरमीम को राज़ी नहीं होते
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हमने ज़रा कहा तो तिलमिला गए
लोगों को सच की आदत जो नहीं
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खास होने की जद्दोजहद में लगे हैं सभी
इतना आसां भी नहीं है आम होना
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"कद का बातों पे हुआ कुछ ऐसा असर
हमारी सब फिज़ूल, उनकी उसूल हुईं।"
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आसान मश्गला ना समझो अशआरों को गढ़ लेना
सौ बार तराशे जाते हैं ये दिल में उतरने से पहले
मश्गला-कार्य
अशआर-काव्य पंक्तियां
-हेमन्त रिछारिया
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