Thursday 12 September, 2013

ग़ज़ल

फ़ज़ाओं से ये पयाम मिला है अभी
किस तरह मेरा गांव जला है अभी

कितने परिन्दे बेघर हो गए देखो
कोई दरख़्त जड़ों से हिला है अभी

इंसानियत कैसे ज़िंदा बच पाएगी
आदम शैतान से जा मिला है अभी

मुनासिब वक्त में हम भी बोलेंगे
जो सच होठों पे सिला है अभी

-हेमन्त रिछारिया

Monday 9 September, 2013

क्यों हिन्दू-मुसलमान...


क्यों हिन्दू-मुसलमान हुआ जाए
लाज़िसी है अब इंसान हुआ जाए

बन सकते हैं जब दिलों का सुकूं
क्यों दर्द का सामान हुआ जाए

टकरा रहीं हैं आपस में सरहदें
चलों यारों आसमान हुआ जाए

आओ हकीकत की तस्दीक करें
कौन तीर;कौन कमान हुआ जाए

लहू से खेलना दरिन्दों का काम है
कभी आदम की पहचान हुआ जाए

मरासिमों की लाशें जलाए हरदम
मेरा ये दिल श्मशान हुआ जाए

खुदा के वास्ते चुप भी रहिए दानां
खूबसूरत शहर वीरान हुआ जाए

-हेमन्त रिछारिया