Monday 19 October, 2009

ख़्वाईशें

ज़िंदगी में इस कदर मुश्किलें ना होतीं
गर दिलों में बेइंतहा ख़्वाईशें ना होतीं

दिन तो गुज़र जाता अफरा-तफरी में
काश! तन्हाई की लंबी रातें ना होती

बसा लेते दिल में प्यार का सागर; अगर
अपनों की बेवफाई की यादें ना होती

बारिश का मज़ा ले पाते तब हम भी
जो घर की छ्त में चंद सुराखें ना होती

जो सिखातीं हैं इंसानों को नफ़रत की भाषा
अच्छा होता दुनिया में वो किताबें ना होती

कसक

आंख भर आती है दिल में कसक सी उठती है
किसी का घर है बहा, कहीं बस्ती सुलगती है

जश्न दीवाली का मनाएं भी तो कैसे
मुस्कुराहटों के पीछे ज़िंदगी सिसकती है

फासले बढ़े जहां वो नहीं वतन हमारा
हमारे गांव में तो यारों दूरी सिमटती है

एक वक्त था जब बुलबुलें चहकतीं थी
अब तो गुलशन में बंदूकें दनकती है

आतंक का फैला है हर सूं अंधेरा
हर नज़र सुनहरी सहर को तरसती है