Sunday 26 May, 2013

अर्ज़ किया है-

 "इक हसीं हमसफ़र की तौफ़ीक दे दे
 मैंने कब तुझसे हरम मांगा है"

------------------

"मैं आज तेरा हमसफ़र ना सही
 कभी हम दो कदम साथ चले थे"

------------------

"गर तू खुद को दानां समझता है
 पढ़ मेरी आंखों में मेरे दिल को"

-----------------

"तुम मेरे नक्शे-पा मिटाते हुए चलना
 कोई और ना मेरे बाद कांटों से गुज़रे"

-------------------

"अदब-औ-मुहब्बत से मिलो सबसे
 जाने कौन सी मुलाकात आखिरी हो"

-----------------------------------

"ये कैसा अहद अब आ गया है शेख
 मुहब्बत रस्म अदायगी सी लगती है"


-----------------------

"हाथ ताउम्र खाशाक से भरे रहे
 गौहर भी मिले तो यकीं नहीं होता"

खाशाक=कूड़ा-करकट 
गौहर=मोती

----------------

"मुफ़लिसों को थी चांदनी की जुस्तजू
 रसूख़दारों ने महे-कामिल कैद कर लिया"

महे-कामिल=पूर्ण चंद्र

------------------

"हर कोई निगाहों से गिरा देता है
 अदने से अश्क की बिसात ही क्या"

-----------------

"जोड़-घटाना अशआरों में कीजिए
 इंसा तरमीम को राज़ी नहीं होते"

----------------

"हमने ज़रा कहा तो तिलमिला गए
 लोगों को सच की आदत जो नहीं"

----------------

"खास होने की जद्दोजहद में लगे हैं सभी
 इतना आसां भी नहीं है आम होना"

----------------------

"कद का बातों पे हुआ कुछ ऐसा असर
 हमारी सब फिज़ूल, उनकी उसूल हुईं।"

----------------

"जाने इस मुल्क का अब क्या होगा
 सियासत रिश्तों में जज़्ब हुई जाती है"

-हेमन्त रिछारिया

Sunday 19 May, 2013

मेरे शहर में हर सूं...

मेरे शहर में हर सूं ये मंज़र क्यूं है
शीशे के घर हाथ में पत्थर क्यूं है

जब खाक में मिलना हश्र है सबका
फिर हर शख़्स बना सिकंदर क्यूं है

गाहे-बगाहे दिल का टूटना माना
ए मौला ये होता अक्सर क्यूं है

ये कसक उसे चैन से सोने नहीं देती
पड़ोसी का मकां घर से बेहतर क्यूं है

जो बुझा नहीं सकता तिश्नगी किसी की
मेरे साहिल से हो बहता वो समंदर क्यूं है

वो भी किसी की बहन,किसी की बेटी है
उसकी जानिब तेरी ये बदनज़र क्यूं है

-हेमन्त रिछारिया