Sunday 15 January, 2012

ज़िक्र नहीं होता अब सुर्ख़िए-अख़बारों में

ज़िक्र नहीं होता अब सुर्ख़िए-अख़बारों में
अपनी कीमत लगता रही नहीं बाज़ारों में

जो देते थे हमको पाक ईमां की नसीहतें
बिके हुए हैं वो ही मुट्ठी भर दीनारों में

बाआवाज़ करते थे सियासी मुख़ालफ़त
बदले मौसम ऐसे बैठे वो दरबारों में

बारिश का मौसम हो कि तन्हाई का आलम
मुख़्तलिफ़ सी शक्लें बनती हैं दीवारों में

ये सोच पर्दानशीं को बेनकाब कर दिया
अज़ाब सारे धुल जाते हैं गंगा के धारों में

ना किसी के दिल का करार हूं.....

ना किसी के दिल का करार हूं,ना बागबां की बहार हूं
तेरी रहगुज़र-ए-दर की मैं उड़ती मुश्ते-गुबार हूं

तुम पशेमां हो भले अब हमारे नाम से
पर ये सच है ए सनम मैं तुम्हारा प्यार हूं

आशियां उजड़ने का न इल्ज़ाम मुझको दीजिए
कोई आज़ाब नही हूं मैं हल्की सी फुहार हूं

तुमको अपने काम का सामां शायद ना मिले
भरा हुआ नहीं मैं उठा हुआ बाज़ार हूं

वादा-वफ़ा किस तरह करूं मैं ये बता मुझे
मैं तो अपने वक्त का टूटा हुआ करार हूं

सुख़नवर कहते हैं सब, मेरा तार्रुफ़ मुख़्तसर
मकबर-ए-गालिब औ मीर की मज़ार हूं

तेरे तबस्सुम पे जां निसार करता हूं

तेरे तबस्सुम पे जां निसार करता हूं
हां मैं तुझसे प्यार;तुझसे प्यार करता हूं

तेरे पहलू में दिल रोके नहीं रूकता
ख़ूबसूरत सी ख़ता हर बार करता हूं

अब भले रूसवाई हो कि संग की बारिश
तेरा दीवाना हूं ये इकरार करता हूं

तेरी अमानत है नाज़ुक दिल मेरा
तोड़ दो चाहे कब इनकार करता हूं

काश सुईयां घुमाने से वक्त गुज़र जाता

काश सुईयां घुमाने से वक्त गुज़र जाता
दो पल ही सही मेरा ये दर्द ठहर जाता

ज़ुल्फ़ों में अपनी तूने बांधे रखा वर्ना
दुनिया की हवाओं में ये गुल बिखर जाता

आप जो हमसफ़र बन गए होते
दूर तक फिर अपना सफ़र जाता

तूने अच्छा किया जो पहलू में जगह दी
ना जाने ये इश्क का मारा किधर जाता

साकी तूने कितनों का छीना सुकूं
मयकदा ना होता मैं अपने घर जाता

तेरी यादों को अपना बनाए बैठे हैं

तेरी यादों को अपना बनाए बैठे हैं
हम निगाहों में सपना सजाए बैठे हैं

इन दर-औ-दीवारों की ज़रूरत हमें नहीं
हम तो तेरे दिल में आशियां बनाए बैठे हैं

वो भूले-भटके शायद इधर आ जाएं
यही सोच राह पे पलकें बिछाए बैठे हैं

अर्श के चांद से क्यूं रश्क हमें हो
हम तो तेरे जानिब नज़रें घुमाए बैठे हैं

मैं जानता हूं वो अपना वादा भूल चुके हैं
नाहक बारिश का बहाना बनाए बैठे हैं

इस धोखे में ना रहना ये गुलों का शहर है
शेख हम यहीं पे चोट खाए बैठे हैं

तेरा वस्ल ही होगा सफ़र का आखिरी मकाम
इस मुख़्तसर सी ज़िद में सांसे बचाए बैठे हैं

Wednesday 11 January, 2012

अपनों के गम से निगाहें चुराते हैं लोग

अपनों के गम से निगाहें चुराते हैं लोग
जानकर भी अनजान नज़र आते हैं लोग

दर्द की दवा नहीं,बता क्यूं नहीं देते
झूठे दिलासे दिए जाते हैं लोग

बेवक्त मदद की दुहाई हैं देते
वक्त पे काम नहीं आते हैं लोग

खुद का दामन देखा ना कभी
औरों के दाग दिखाते हैं लोग

खिज़ाओं के बाद ना मौसम-ए-बहार आया

खिज़ाओं के बाद ना मौसम-ए-बहार आया
तमाम उम्र गुज़री ना दिल को करार आया

तुझपे जां निसारी की कसम खाई थी मैंने
मेरी कज़ा के बाद भी तुझे ना एतबार आया

कुछ इस तरह से किया उसने बंटवारा
अपने हिस्से में बस इंतज़ार आया

गुलों के साथ तूने शौकीन-ए-इत्र बनाए
ना रहम तुझे ए परवरदिगार आया

चांदनी रात में मेरे ख़्वाबों ने शक्ल पाई है

चांदनी रात में मेरे ख़्वाबों ने शक्ल पाई है
चांद के अक्स में तेरी सूरत नज़र आई है

बयार के चलते यूं लचकी शाखे-गुल
मुझे लगा मेरे छूने से तू शरमाई है

ए चांद ज़रा छिप जा बदली की ओट में
बाद मुद्दतों के ये शब-ए-वस्ल आई है

जो नूर था आसमां का अब वही पहलू में है
दिल ने अब है माना होती क्या खुदाई है

ज़िंदगी की अपनी परेशानियां हैं

क्या कहूं आपसे किन उलझनों में हूं
ज़िंदगी की अपनी परेशानियां हैं

दरे-जानां;तक जाना, इतना आसां नहीं
रहगुज़र में होती बड़ी निगरानियां हैं

मेरे सर इश्क का इल्ज़ाम न दीजिए
शबाब की अपनी नादानियां हैं

हमने हाले-दिल सुनाया था उनको
वो कहने लगे अच्छी कहानियां हैं

लगता इसे किसी सिकंदर की नज़र लगी
शहर में फैली हर सूं वीरानियां हैं

पूछते हो घर मेरा आबाद क्यूं नहीं
साहब सब आपकी मेहरबानियां हैं

मेरी तकदीर मुझे धोखा दे गई होगी

मेरी तकदीर मुझे धोखा दे गई होगी
तू अपनी दुआओं पे शक ना कर

दामन थाम ज़रा मजबूती से ए सनम
तू इन मग़रूर हवाओं पे शक ना कर

उमड़ीं हैं तो बरस कर ही दम लेंगीं
तू इन काली घटाओं पे शक ना कर

तू बेखुदी हुआ बिस्मिल कसूर तेरा है
तू मेरी अदाओं पे शक ना कर

हालात बेवफ़ाई कर रहे हों तुझसे
तू मेरी वफ़ाओं पे शक ना कर

वादे पे मेरे क्यूं तुम्हें एतबार ही नहीं

वादे पे मेरे क्यूं तुम्हें एतबार ही नहीं
क्या तुम्हें मुझसे कोई प्यार ही नहीं

पलकों की चिलमन गिरा चिराग गुल कर दिए
लगता तुम्हें अब मेरा इंतज़ार ही नहीं

पहलू में दर्दे-दिल लिए क्यूं भटकते हो शेख
इस बाज़ार में गम का खरीददार ही नहीं

सादगी से तेरे इश्क में जो मरकर चला गया
उस आशिक का तेरे शहर में मज़ार ही नहीं

चौखट पे मयखानों की जाते हो रोज़ो-शब
चढ़कर जो उतर जाए वो खु़मार ही नहीं

झूठ के इस दौर में करता हूं बयां सच
शायद मुझसा कोई गुनाहगार ही नहीं

मुफ़लिसों का दर्द जिसके अशआर में न हो
मेरी नज़र में यार वो कलमकार ही नहीं

Thursday 5 January, 2012

ग़ज़ल

मिलती सबको तेरी इनायत भरी निगाह कहां
इश्क के मारों को सराए-दहर में पनाह कहां

मिज़ाएं झपक जाएं गर तेरे नूर को देखकर
नज़रे-वाइज़ में इससे बढ़कर गुनाह कहां

अपने दिल से बेदखल किया है उसने मुझे
कोई तो बताए अब मेरी ख़्वाबगाह कहां

शाम-ओ-सहर पुरसिश-ए-अमाल करने वाले
शुक्रगुज़ार हूं तेरा; तुझसा निगेहबाह कहां

सफ़र-ए-जीस्त में जो वक्त-ए-मुसीबत आया
ढूंढ रहा हूं उनको गए सब दादख़्वाह कहां

बहारों के साये में कमी सी लगती है

बहारों के साये में कमी सी लगती है
अपनी ही ज़िंदगी अजनबी सी लगती है

दो कदम पे ना मिलेगी कारवां की मंज़िल
चलना है बाकी राह में रोशनी सी लगती है

लुटेरों की बस्ती में लगता आ पहुंचे हैं हम
अब तो हर खुशी अपनी लुटी सी लगती है

झूठ का हो रहा हर तरफ बोलबाला
सच की रफ़्तार थमी सी लगती है

आंखों में नमी ना दिल में नरम कोना
मुहब्बत की बात बेमानी सी लगती है

गिरे हैं भाव इस कदर बाज़ारों के
ज़िंदगी कितनी सस्ती सी लगती है

ग़ज़ल

ज़िंदगी भर सुलगते हैं जज़्बात हौले-हौले
आते हैं प्यार के ख़्यालात हौले-हौले

भरी बज़्म के शोर को कुछ कम तो करो
हम सुनाते हैं महफिल में नगमात हौले-हौले

वारदात तो हो चुकी है कब की शहर में
होगी सबको सच की मालूमात हौले-हौले

कच्चे धागों के मानिंद मरासिम सारे
परवान चढ़ते हैं ताल्लुकात हौले-हौले

जब तक ज़िंदा थे कुछ भी न कहा
बाद मरने के दिए बयानात हौले-हौले

ग़ज़ल

एक नई जंग का हौंसला दे गया
सबक फिर कोई हादसा दे गया

हिज्र की शक्ल ली वस्ल ने मगर
प्यार का इक नया कायदा दे गया

रात गहराई है ना चिराग कोई
एक जुगनू हमें आसरा दे गया

लोग घर से चले और गुम हो गए
रहगुज़र को सफर कारवां दे गया

ज़िंदगी अपनी हो रही जो ग़म में बसर है

ज़िंदगी अपनी हो रही जो ग़म में बसर है
कुछ तो किस्मत कुछ तेरी आहों का असर है।

कटती नहीं शब तेरे आगोश के बिना
लगता है जैसे बड़ी दूर सहर है।

कब्र पे आकर वादा वो निभा गए
आज सुर्खियों में बनी ये ख़बर है।

मैं तो लिए बैठा हूं खाली जाम अपना
लेकिन मेरा साकी डाले ना नज़र है।

-हेमंत रिछारिया

ए खुदा तेरा ईजादे-करिश्मा

ए खुदा तेरा ईजादे-करिश्मा तेरी पहचान ना बन सका
ये हाड़ मांस का पुतला अभी इंसान ना बन सका

घर की लाज ना ढंक पाएगी देहरी पे लटके परदों से
इक टुकड़ा कफ़न मुफ़लिसों की आन ना बन सका

यूं कितने देते हैं जां इन आम कत्लोगारद में
हर मरहूम मगर वतन की शान ना बन सका

नफरत की लिए निशानी रहा भटकता दर-ब-दर
पले प्यार से दिल में वो अरमान ना बन सका

अशआर पढ़े हैं ना जाने कितने हमने बज़्मों में
दैरो-हरम में जो गूंजे वो अजान ना बन सका

पैगाम सुने हैं कई हमने इन सामंती दरबारों के
अमन-मोहब्बत को फैलाने फरमान ना बन सका

कवि-हेमंत रिछारिया