ज़िक्र नहीं होता अब सुर्ख़िए-अख़बारों में
अपनी कीमत लगता रही नहीं बाज़ारों में
जो देते थे हमको पाक ईमां की नसीहतें
बिके हुए हैं वो ही मुट्ठी भर दीनारों में
बाआवाज़ करते थे सियासी मुख़ालफ़त
बदले मौसम ऐसे बैठे वो दरबारों में
बारिश का मौसम हो कि तन्हाई का आलम
मुख़्तलिफ़ सी शक्लें बनती हैं दीवारों में
ये सोच पर्दानशीं को बेनकाब कर दिया
अज़ाब सारे धुल जाते हैं गंगा के धारों में
अपनी कीमत लगता रही नहीं बाज़ारों में
जो देते थे हमको पाक ईमां की नसीहतें
बिके हुए हैं वो ही मुट्ठी भर दीनारों में
बाआवाज़ करते थे सियासी मुख़ालफ़त
बदले मौसम ऐसे बैठे वो दरबारों में
बारिश का मौसम हो कि तन्हाई का आलम
मुख़्तलिफ़ सी शक्लें बनती हैं दीवारों में
ये सोच पर्दानशीं को बेनकाब कर दिया
अज़ाब सारे धुल जाते हैं गंगा के धारों में