Sunday 24 February, 2013

ग़ज़ल

वक्त ने छोड़े हैं ऐसे अपने निशां
आईना देखते हैं तो डर जाते हैं

तू खुद को ना ख़तावार समझ
ये दीदें पराए गम से भर जाते हैं

तन्हा दीवारों से सिवा कुछ नहीं
कहने को हम भी "घर" जाते हैं

ताब-ए-सब्र पे यकीं है लेकिन
कुछ बोल हैं जो अखर जाते हैं

गुलों की दोस्ती में फा़सला रखना
नाज़ुक छुअन से बिखर जाते हैं

तेरा आस्तां ही अपनी मंज़िल है
लोगों से क्या कहें किधर जाते हैं

मादरे-वतन पे जिनको नाज़ नहीं
उनके अंजाम से सिहर जाते हैं

-हेमन्त रिछारिया

Saturday 23 February, 2013

अर्ज़ किया है...

"जुर्म-ए-मुहब्बत में वो थे बराबर के शरीक
 ए खुदा मिली है सिर्फ़ मुझे सजा क्यूं"
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"तुम मेरे नक्शे-पा मिटाते हुए चलना
 कोई और ना मेरे बाद कांटों से गुज़रे"
***

"बस इतना सा है ज़िंदगानी का फ़लसफा़
 दो घड़ी रूक कोई मुसाफ़िर सुस्ता लिया"
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"लिबासों के मानिंद कौल बदलते हैं
 अब कोई ईमां का पक्का नहीं मिलता"
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"ठहाके;कहकहे; वो महफिलों का सिलसिला
 रौनकें रखतीं हैं मुझसे दो कदम का फ़ासला।"
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"तेरी ज़ुल्फ़ों के पेंचोखम सी मेरी ज़िंदगी
 जितना सुलझाऊं, उलझती जाती है।"
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"क्या करूंगा मैं लेकर तेरा सारा जहान
 साथी मेरे पास है दो आंसू इक मुस्कान"
***

"आंखों में कतरा-ए-अश्क बचाए हुए रखना
 हादसों के शहर से गुज़रना अभी बाकी है।"
***

"टूट ही जाएं कि ये नींद खत्म हो
 ख़्वाबों के चलते तो जागना मुश्किल।"
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" हाथ ताउम्र खाशाक से भरे रहे
 गौहर भी मिले तो यकीं नहीं होता"|

खाशाक=कूड़ा-करकर  गौहर=मोती
***

"मुफ़लिसों की आरज़ू थी चांदनी बिखरे
 रसूख़दारों ने महे-कामिल कैद कर लिया"

महे-कामिल=पूर्ण चंद्र
***

"हर कोई निगाहों से गिरा देता है
 अदने से अश्क की बिसात ही क्या"

***

"जोड़-घटाना अशआरों में कीजिए
 इंसा तरमीम को राज़ी नहीं होते"
***

"हमने ज़रा कहा तो तिलमिला गए
 लोगों को सच की आदत जो नहीं"

***

"तुम छलकने का शिकवा ना करो
उसका पैमाना ही छोटा है"
***

"खास होने की जद्दोजहद में लगे हैं सभी
 इतना आसां भी नहीं है आम होना"

***

"कद का बातों पे हुआ कुछ ऐसा असर
 हमारी सब फिज़ूल, उनकी उसूल हुईं।"

-हेमन्त रिछारिया
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ग़ज़ल

वक्त ने छोड़े हैं ऐसे अपने निशां
आईना देखते हैं तो डर जाते हैं

तू खुद को ना ख़तावार समझ
ये दीदें पराए गम से भर जाते हैं

तन्हा दीवारों से सिवा कुछ नहीं
कहने को हम भी "घर" जाते हैं

ताब-ए-सब्र पे यकीं है लेकिन
कुछ बोल हैं जो अखर जाते हैं

गुलों की दोस्ती में फा़सला रखना
नाज़ुक छुअन से बिखर जाते हैं

तेरा आस्तां ही अपनी मंज़िल है
लोगों से क्या कहें किधर जाते हैं

मादरे-वतन पे जिनको नाज़ नहीं
उनके अंजाम से सिहर जाते हैं

-हेमन्त रिछारिया

Tuesday 19 February, 2013

ग़ज़ल

यूं तो उम्र के कई वसंत देख चुका हूं
पर मैं उन पतझरों को नहीं भूला हूं

जो चाह कर भी शाम घर लौट ना सके
उन"सुबह के भूलों"का लंबा काफिला हूं

बेबाकी खामोशी का दामन ओढ़ लेती है
मैं हालाते-ज़िंदगी का वो फलसफा़ हूं

अभी से चैन की सांस न ले गाफ़िल
मैं तेरी जीस्त का अधूरा मश्गला हूं

ग़ज़ल

आंखों ही आंखों में इज़हार किए जाते हैं
इस तरह वो हमसे प्यार किए जाते हैं

हम उनके दिल में दाखिल ना हो सके
वो हमारे दिल पे इख़्तियार किए जाते हैं

इश्क की बातें ज़रा छिप-छिप के कीजिए
क्यूं आप इन्हें सरे-बाज़ार किए जाते हैं

ज़ुल्फों के पेंचोखम;औ ये रू-ए-रोशन
हम इन्हीं पे दिल निसार किए जाते हैं

ग़ज़ल

खिज़ाओं के बाद ना भी मौसमे-बहार आया
तमाम उम्र गुज़री ना दिल को करार आया

तुझपे जां निसारी की कसम खाई थी मैंने
कज़ा के बाद भी तुझे ना एतबार आया

कुछ ऐसे बंटवारा किया उसने वाइज़
अपने हिस्से में बस इंतज़ार आया

गुलों के साथ ही शौकीने-इत्र भी हैं
रहम तुझे ना परवरदिगार आया

ग़ज़ल

नादानी थी जो तुझसे प्यार कर लिया
वादे पे तेरे हमने एतबार कर लिया

कहता था शेख तू ना आएगा इधर
फिर भी दर पे जा इंतज़ार कर लिया

ये मुहज़्ज़ब अदाएं;लबों के सादा बोल
इन पर दिल अपना निसार कर लिया

तूने बेदखल किया हर चीज़ से मुझे
यादों पे तेरी इख़्तियार कर लिया

ग़ज़ल

दिल दिया; जां दी बचा ना कुछ लुटाने को
अब भी अरमां बाकी है मुझे आज़माने को

तू नहीं; तेरा हसीन ख्वाब ही सही
बहाना तो है चैन से सो जाने को

बारहा लोगों ने लूटा इसे मगर
तू बख़्श दे दिल के खजाने को

वो अपने जाल में खुद फंस गया
बुना था उसने इसे मुझे फंसाने को

इक वक्त था हर सूं बहारें मचलतीं थीं
जाने किसकी नज़र लगी आशियाने को

डुबोने का सर पे इल्ज़ाम आ गया
मैं तो आया था तुझे बचाने को

Sunday 10 February, 2013

गज़ल

उनकी नज़र उठे तो पयाम होता है
ख़ामोश लबों से भी कलाम होता है

वो मुकर जाते हैं इश्क से लेकिन
हथेली पे लिखा मेरा नाम होता है

हुस्न वाले सर इल्ज़ाम नहीं लेते
दीवाना मुफ़्त बदनाम होता है

शेख कहता है वो तंज़ करते हैं
हमारे लिए एहतराम होता है