Monday 19 October, 2009

कसक

आंख भर आती है दिल में कसक सी उठती है
किसी का घर है बहा, कहीं बस्ती सुलगती है

जश्न दीवाली का मनाएं भी तो कैसे
मुस्कुराहटों के पीछे ज़िंदगी सिसकती है

फासले बढ़े जहां वो नहीं वतन हमारा
हमारे गांव में तो यारों दूरी सिमटती है

एक वक्त था जब बुलबुलें चहकतीं थी
अब तो गुलशन में बंदूकें दनकती है

आतंक का फैला है हर सूं अंधेरा
हर नज़र सुनहरी सहर को तरसती है

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