आंख भर आती है दिल में कसक सी उठती है
किसी का घर है बहा, कहीं बस्ती सुलगती है
जश्न दीवाली का मनाएं भी तो कैसे
मुस्कुराहटों के पीछे ज़िंदगी सिसकती है
फासले बढ़े जहां वो नहीं वतन हमारा
हमारे गांव में तो यारों दूरी सिमटती है
एक वक्त था जब बुलबुलें चहकतीं थी
अब तो गुलशन में बंदूकें दनकती है
आतंक का फैला है हर सूं अंधेरा
हर नज़र सुनहरी सहर को तरसती है
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