Sunday 19 May, 2013

मेरे शहर में हर सूं...

मेरे शहर में हर सूं ये मंज़र क्यूं है
शीशे के घर हाथ में पत्थर क्यूं है

जब खाक में मिलना हश्र है सबका
फिर हर शख़्स बना सिकंदर क्यूं है

गाहे-बगाहे दिल का टूटना माना
ए मौला ये होता अक्सर क्यूं है

ये कसक उसे चैन से सोने नहीं देती
पड़ोसी का मकां घर से बेहतर क्यूं है

जो बुझा नहीं सकता तिश्नगी किसी की
मेरे साहिल से हो बहता वो समंदर क्यूं है

वो भी किसी की बहन,किसी की बेटी है
उसकी जानिब तेरी ये बदनज़र क्यूं है

-हेमन्त रिछारिया

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