Sunday 24 February, 2013

ग़ज़ल

वक्त ने छोड़े हैं ऐसे अपने निशां
आईना देखते हैं तो डर जाते हैं

तू खुद को ना ख़तावार समझ
ये दीदें पराए गम से भर जाते हैं

तन्हा दीवारों से सिवा कुछ नहीं
कहने को हम भी "घर" जाते हैं

ताब-ए-सब्र पे यकीं है लेकिन
कुछ बोल हैं जो अखर जाते हैं

गुलों की दोस्ती में फा़सला रखना
नाज़ुक छुअन से बिखर जाते हैं

तेरा आस्तां ही अपनी मंज़िल है
लोगों से क्या कहें किधर जाते हैं

मादरे-वतन पे जिनको नाज़ नहीं
उनके अंजाम से सिहर जाते हैं

-हेमन्त रिछारिया

No comments: