Sunday 27 July, 2014

ग़ज़ल

ना आहो-फ़ुगां, ना गम लिख रहा हूं
मैं इन दिनों बहुत कम लिख रहा हूं

मुहब्बत;वफ़ा;दोस्ती;कस्मे-वादे
मैं तो जहां के भरम लिख रहा हूं

नए दौर के कुछ नए हैं सलीके
मैं आंखों की शरम लिख रहा हूं

वो लिख रहे हैं शिकस्त आंधियों की
मैं हथेली के अपनी ज़ख़्म लिख रहा हूं

वो कह रहे हैं बेवफ़ा मुझको अक्सर
मैं अब भी उनको सनम लिख रहा हूं

-हेमन्त रिछारिया

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