Tuesday 20 May, 2008

रात भर दामिनी

रात भर दमिनी यूं दमकती रही
तिश्ना रूहें मिलन को तरसती रहीं

सोचता मैं रहा गुफ्तगू क्या करूं
वो भी चिलमन में बैठी लरज़ती रही

कुछ ऐसा लगा जब वो ज़ुल्फ़ें खुलीं
जैसे बागोंं में कलियां चटकती रहीं

जुदा हो के जागे ह्म शब तलक
वो भी बेचैन करवट बदलती रही

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