Wednesday 11 January, 2012

वादे पे मेरे क्यूं तुम्हें एतबार ही नहीं

वादे पे मेरे क्यूं तुम्हें एतबार ही नहीं
क्या तुम्हें मुझसे कोई प्यार ही नहीं

पलकों की चिलमन गिरा चिराग गुल कर दिए
लगता तुम्हें अब मेरा इंतज़ार ही नहीं

पहलू में दर्दे-दिल लिए क्यूं भटकते हो शेख
इस बाज़ार में गम का खरीददार ही नहीं

सादगी से तेरे इश्क में जो मरकर चला गया
उस आशिक का तेरे शहर में मज़ार ही नहीं

चौखट पे मयखानों की जाते हो रोज़ो-शब
चढ़कर जो उतर जाए वो खु़मार ही नहीं

झूठ के इस दौर में करता हूं बयां सच
शायद मुझसा कोई गुनाहगार ही नहीं

मुफ़लिसों का दर्द जिसके अशआर में न हो
मेरी नज़र में यार वो कलमकार ही नहीं

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