वादे पे मेरे क्यूं तुम्हें एतबार ही नहीं
क्या तुम्हें मुझसे कोई प्यार ही नहीं
पलकों की चिलमन गिरा चिराग गुल कर दिए
लगता तुम्हें अब मेरा इंतज़ार ही नहीं
पहलू में दर्दे-दिल लिए क्यूं भटकते हो शेख
इस बाज़ार में गम का खरीददार ही नहीं
सादगी से तेरे इश्क में जो मरकर चला गया
उस आशिक का तेरे शहर में मज़ार ही नहीं
चौखट पे मयखानों की जाते हो रोज़ो-शब
चढ़कर जो उतर जाए वो खु़मार ही नहीं
झूठ के इस दौर में करता हूं बयां सच
शायद मुझसा कोई गुनाहगार ही नहीं
मुफ़लिसों का दर्द जिसके अशआर में न हो
मेरी नज़र में यार वो कलमकार ही नहीं
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