मिलती सबको तेरी इनायत भरी निगाह कहां
इश्क के मारों को सराए-दहर में पनाह कहां
मिज़ाएं झपक जाएं गर तेरे नूर को देखकर
नज़रे-वाइज़ में इससे बढ़कर गुनाह कहां
अपने दिल से बेदखल किया है उसने मुझे
कोई तो बताए अब मेरी ख़्वाबगाह कहां
शाम-ओ-सहर पुरसिश-ए-अमाल करने वाले
शुक्रगुज़ार हूं तेरा; तुझसा निगेहबाह कहां
सफ़र-ए-जीस्त में जो वक्त-ए-मुसीबत आया
ढूंढ रहा हूं उनको गए सब दादख़्वाह कहां
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